मणिमोहन चवरे 'निमाड़ी' की लेखनी से एक साहित्यिक - सांस्कृतिक यात्रा

मणिमोहन चवरे 'निमाड़ी' ____________________________________________________________________________________________________

पहला अक्षर सीखा‘माँ’। फिर, माँ से सीखी मातृभाषा। अपनी मातृभाषा निमाड़ी को जैसा, जितना समझ पाया, विनीत भाव से अर्पित करता हूँ।

‘भाषा केवल संवाद का माध्यम ही नहीं, वह हमारी आत्मा का प्रतिबिंब भी है’

मणिमोहन चवरे 'निमाड़ी'

             

             निमाड़ की माटी में जन्मे, वहीं के रंगों और ध्वनियों में पले-बढ़े मणिमोहन चवरे 'निमाड़ी' उस विरले कवि-लेखक वर्ग से आते हैं, जिनकी लेखनी सिर्फ़ साहित्य ही नहीं रचती, वह जनजीवन को जीती भी है। उनके शब्दों में गाँव की पगडंडियाँ हैं, खेतों की हरियाली है, और बोली की मिठास है। 'निमाड़ी' उपनाम मात्र एक शैली नहीं, बल्कि उनके अस्तित्व की पहचान है। दशकों से वे लोकसंस्कृति, निमाड़ी भाषा और जनसरोकारों को अपनी कविताओं, गीतों और विचारों के माध्यम से संजोते आ रहे हैं। उनका साहित्य न सिर्फ पढ़ा जाता है, बल्कि महसूस भी किया जाता है, जैसे कोई पुरानी लोकधुन हो जो दिल को छू जाए।         

                                                                                             ~ अभिषेक श्रीवास्तव